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सूरदास

व्रज--प्रवेश--शोभा

राग-बिलावल

जागियै गोपाल लाल, प्रगट भई अंसु-माल,
मिट्यौ अंधकाल उठौ जननी-सुखदाई |
मुकुलित भए कमल-जाल, कुमुद-बृंदबन बिहाल,
मेटहु जंजाल, त्रिबिध ताप तन नसाई ||
ठाढ़े सब सखा द्वार, कहत नंद के कुमार ,
टेरत हैं बार-बार, आइयै कन्हाई
गैयनि भइ बड़ी बार, भरि-भरि पय थननि भार ,
बछरा-गन करैं पुकार, तुम बिनु जदुराई ||
तातैं यह अटक परी, दुहन-काल सौंह करी,
आवहु उठि क्यौं न हरी, बोलत बल भाई |
मुख तैं पट झटकि डारि, चंद -बदन दियौ उघारि,
जसुमति बलिहारि वारि, लोचन-सुखदाई ||
धेनु दुहन चले धाइ, रोहिनी लई बुलाइ,
दोहनि मोहि दै मँगाइ, तबहीं लै आई
बछरा दियौ थन लगाइ, दुहत बैठि कै कन्हाइ,
हँसत नंदराइ, तहाँ मातु दोउ आई ||
दोहनि कहुँ दूध-धार, सिखवत नँद बार-बार,
यह छबि नहिं वार-पार, नंद घर बधाई |
हलधर तब कह्यौ सुनाइ, धेनु बन चलौ लिवाइ,
मेवा लीन्हौ मँगाइ, बिबिध-रस मिठाई ||
जेंवत बलराम-स्याम, संतन के सुखद धाम,
धेनु काज नहिं बिराम, जसुदा जल ल्याई |   
स्याम-राम मुख पखारि, ग्वाल-बाल दिए हँकारि,
जमुना -तट मन बिचारि, गाइनि हँकराई ||
सृंग-बेनु-नाद करत, मुरली मधु अधर धरत,
जननी-मन हरत, ग्वाल गावत सुघराई |
बृंदाबन तुरत जाइ, धेनु चरति तृन अघाइ,
स्याम हरष पाइ, निरखि सूरज बलि जाई ||
भावार्थ :-- (माता कहती हैं-) गोपाल लाल! जागो, सूर्यकी किरणें दीखने लगीं, अन्धकार
मिट गया, माताको सुख देनेवाले लाल ! उठो | कमल-समूह खिल गये, कुमुदिनियोंका वृन्द
जलमें मलिन पड़ गया, (तुम उठकर) सब जंजाल दूर करो, (व्रजवासियोंके) शरीरके
तीनों (आधिदैविक,आधिभौतिक, आध्यात्मिक) कष्ट नष्ट कर दो | सब सखा द्वारपर खड़े हैं,
वे बार-बार पुकारकर कह रहे हैं-`नन्दलाल ! कन्हाई ! आओ, गायों को बड़ी देर हो गयी,
उनके थन दूधके भारसे बहुत भर गये हैं, यदुनाथ ! तुम्हारे बिना बछडों का समूह भी
(दूध पीने के लिये) पुकार कर रहा है | यह रुकावट इसलिये पड़ गयी है कि दुहते समय
तुमने शपथ दिला दी (कि मेरे आये बिना गायें मत दुहना)| तुम्हारे भैया बलराम बुला
रहे हैं--`श्यामसुन्दर! उठकर आते क्यों नहीं हो ?' (यह सुनकर मोहनने) मुखसे झटककर
वस्त्र दूर कर दिया, चन्द्रमुख खोल दिया | माता यशोदाके नेत्रोंको बड़ा सुख मिला,
माताने जल न्यौछावर किया (और पी लिया) (श्याम) दौड़कर गाय दुहने चले और माता
रोहिणीको बुलाया -`मुझे दोहनी मँगा दो |' तभी माता (दोहनी) ले आयीं | बछड़ेको
थनसे लगा दिया, कन्हाई बैठकर दूध दुहने लगे, व्रजराज नन्दजी (खड़े) हँस रहे हैं,
वहाँ दोनों माताएँ भी आ गयीं | कहीं दोहनी है और कहीं दूधकी धार जाती है, नन्दजी
बार-बार सिखला रहे हैं,
इस शोभाका कोई अन्त नहीं है, श्रीनन्दजीके घरमें बधाई बज रही है | तब बलरामजीने
सम्बोधन करके कहा--`गायें वनको ले चलो |' मेवा और अनेक प्रकार के स्वादवाली
मिठाइयाँ मँगा लीं | सत्पुरुषोंके आनन्दधाम श्रीश्याम और बलराम भोजन कर रहे हैं,
किंतु गायोंके लिये (गायोंकी चिन्तासे) उन्हें अवकाश नहीं है | माता यशोदा जल ले
आयीं, बलराम-श्यामने मुख धोकर गोप-बालकोंको पुकार लिया, यमुना-किनारे जाने की
इच्छा करके गायोंको हँकवा दिया | सब शृंग और वेणु (बाँसकी नली) का शब्द करते हैं,
अधरोंपर वंशी रखकर मधुर ध्वनिमें बजाते हुए माताका चित्त हरण करते हैं, गोप-बालक
सुघराई राग गा रहे हैं | तत्काल वृन्दावन जाकर गायें संतुष्ट होकर घास चर रही हैं,
श्यामसुन्दर इससे हर्षित हो रहे हैं | यह शोभा देखकर सूरदास बलिहारी जाता है |

National Record 2012

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