मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

चौथा भाग

बलबान से भिड़न्त

 

अब एशियाई अधिकारियों की ओर लौटे ।

एशियाई अधिकारियों का बड़े से बड़ा थाना जोहानिस्बर्ग में था । मैं यह देख रहा था कि उस थाने मे हिन्दुस्तानी, चीनी आदि लोगो का रक्षण नहीं , बल्कि भक्षण होता था । मेरे पास रोज शिकायतें आती थी , 'हकदार दाखिल नही हो सकते और बिना हकवाले सौ-सौ पौंड़ देकर चले आ रहे है। इसका इलाज आप नहीं करेंगे तो और कौन करेंगा ?' मेरी भी यही भावना थी । यदि यह सड़ांध दूर न हो, तो मेरा ट्रान्सवाल मे बसना व्यर्थ माना जायगा ।

मैं प्रमाण जुटाने लगा । जब मेरे पास प्रमाणो का अच्छा सा संग्रह हो गया , तो मै पुलिस-कमिश्नर के पास पहुँचा । मुझे लगा कि उसमे दया और न्याय की वृत्ति है । मेरी बात को बिल्कुल अनसुनी करने के बदले उसने मुझे धीरज से सुना और प्रमाण उपस्थित करने का कहा । गवाहो के बयान उसने स्वयं ही लिये । उसे विश्वास हो गया । पर जिस तरह मै जानता था उसी तरह वह भी जानता था कि दक्षिण अफ्रीका में गोरो पंचों द्वारा गोरे अपराधियों को दण्ड दिलाना कठिन हैं । उसने कहा, 'फिर भी हम प्रयत्न तो करे ही । ऐसे अपराधी को जूरी द्वारा छोड़ दिये जायेंगे, इस डर से उन्हें न पकड़वाना भी उचित नही हैं । इसलिए मैं तो उन्हें पकड़वाऊँगा । आपको मै इतना विश्वास दिलाता हूँ कि अपनी मेहनत मे मैं कोई कसर नहीं रखूँगा ।'

मुझे तो विश्वास था ही । दूसरे अधिकारियों पर भी सन्देह तो था , पर उनके विरुद्ध मेरे पास कमजोर प्रमाण था । दो के बारे मे कोई सन्देह नहीं था । अतएव दो के नाम वारंट निकले ।

मेरा आना-जाना छिपा रह ही नही सकता था । कई लोग देखते थे कि मै प्रायः प्रतिदिन पुलिस कमिश्नर के यहाँ जाता हूँ । इन दो अधिकारियों के छोटे-बड़े जासूस तो थे ही । वे मेरे दफ्तर पर निगरानी रखते थे और मेरे आने-जाने की खबरें उन अधिकारियों को पहुँचाते थे । यहाँ मुझे यह कहना चाहिये कि उक्त अधिकारियो का अत्याचार इतना ज्यादा था कि उन्हें ज्यादा जासूस नहीं मिलते थे । यदि हिन्दुस्तानियो और चीनियों की मुझे मदद न होती , तो ये अधिकारी पकड़े ही न जाते ।

इन दो में से एक अधिकारी भागा । पुलिस कमिश्नर ने बाहर का वारंट निकालकर उसे वापस पकड़वा मँगाया । मुकदमा चला । प्रमाण भी मजबूत थे और एक के तो भागने का प्रमाण जूरी के पास पहुँच सका था । फिर भी दोनो छूट गये !

मुझे बड़ी निराशा हुई । पुलिस कमिश्नर को भी दुःख हुआ । वकालत से मुझे अरुचि हो गयी । बुद्धि का उपयोग अपराध को छिपाने मे होता देखकर मुझे बुद्धि ही अप्रिय लगने लगी ।

दोनो अधिकारियो का अपराध इतना प्रसिद्ध हो गया था कि उनके छूट जाने पर भी सरकार उन्हें रख नहीं सकी । दोनो बरखास्त हो गये और एशियाई विभाग कुछ साफ हुआ । अब हिन्दुस्तानियो को धीरज बँधा औऱ उनकी हिम्मत भी बढ़ी ।

इससे मेरी प्रतिष्ठा बढ़ गयी । मेरे धंधे मे भी बृद्धि हुई । हिन्दुस्तान समाज के जो सैकड़ो पौंड हर महीने रिश्वत मे जाते थे, उनमे बहुत कुछ बचत हुई । यह तो नही कहा जा सकता कि पूरी रकम बची । बेईमान तो अब भी रिश्वत खाते थे । पर यह कहा जा सकता हैं कि जो प्रामाणिक थे, वे अपनी प्रामणिकता की रक्षा कर सकते थे ।

मै कह सकता हूँ कि इन अधिकारियो के इतने अधम होने पर भी उनके विरुद्ध व्यक्तिगत रूप से मेरे मन मे कुछ भी न था । मेरे इस स्वभाव को वे जानते थे । और जब उनकी कंगाल हालत मे मुझे उन्हें मदद करने का मौका मिला , तो मैने उनकी मदद भी की थी। यदि मेरी विरोध न हो तो उन्हें जोहानिस्बर्ग की म्युनिसिपैलिटी मे नौकरी मिल सकती थी । उनका एक मित्र मुझे मिला औऱ मैने उन्हें नौकरी दिलाने मे मदद करना मंजूर कर लिया । उन्हें नौकरी मिल भी गयी ।

मेरे इस कार्य का यह प्रभाव पड़ा कि मैं जिन गोरो के सम्पर्क मे आया , वे मेरी तरफ से निर्भय रहने लगे , और यद्यपि उनके विभागो के विरुद्ध मुझे लड़ना पड़ता था, तीखे शब्द कहने पड़ते थे , फिर भी वे मेरे साथ मीठा संबंध रखते थे । इस प्रकार का बरताव मेरा एक स्वभाव ही था , इसे मै उस समय ठीक से जानता न था । यह तो मैं बाद मे समझने लगा कि ऐसे बरताव मे सत्याग्रह की जड़ मौजूद हैं औऱ यह अंहिसा का एक विशेष अंग है ।

मनुष्य और उनका काम ये दो भिन्न वस्तुएं हैं । अच्छे काम के प्रति आदर और बुरे के प्रति तिरस्कार होना ही चाहिये । भले-बुरे काम करने वालो के प्रति सदा आदर अथवा दया रहनी चाहिये । यह चीज समझने मे सरले हैं, पर इसके अनुसार आचरण कम से कम होता है। इसी कारण इस संसार मे विष फैलता रहता है ।

सत्य के शोध के मूल मे ऐसी अहिंसा हैं । मै प्रतिक्षण यह अनुभव करता हूँ कि जब तक यह अहिंसा हाथ मे नही आती , तब तक सत्य मिल ही नही सकता । व्यवस्था या पद्धति के विरुद्ध झगड़ना शोभा देता है, पर व्यवस्थापक के विरुद्ध झगड़ा करना तो अपने विरुद्ध झगड़ने के समान है । क्योकि हम सब एक ही कूंची से रचे गये है , एक ही ब्रह्मा की संतान है । व्यवस्थापर मे अनन्त शक्तियाँ निहित हैं । व्यवस्थापक का अनादर या तिरस्कार करने से उन शक्तियों का अनादार होता हैं और वैसा होने पर व्यवस्थापक को और संसार को हानि पहुँचती हैं ।

 

 

 

 

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