मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

चौथा भाग

कड़वा घूंट पिया

 

इस अपमान से मुझे बहुत दुःख हुआ । पर पहले मैं ऐसे अपमान सहन कर चुका था, इससे पक्का हो गया था । अतएव मैंने अपमान की परवाह न करते हुए तटस्थता-पूर्वक जब जो कर्तव्य मुझे सूझ जाय, सो करते रहने का निश्चय किया ।

उक्त अधिकारी के हस्ताक्षरोंवाला पत्र मिला । उसमें लिखा था कि मि, चेम्बरलेन डरबन में मि. गाँधी से मिल चुके है, इसलिए अब उनका नाम प्रतिनिधियों में से निकाल डालने की जरूरत हैं ।

साथियों को यह पत्र असह्य प्रतीत हुआ । उन्होंने अपनी राय दी कि डेप्युटेशन ले जाने का विचार छोड़ दिया जाय । मैने उन्हें हमारे समाज की विषम स्थिति समझायी , 'अगर आप मि. चेम्बलेन के पास नहीं जायेंगे , तो यह माना जायगा कि यहाँ हमें कोई कष्ट हैं ही नहीं । आखिर जो कहना हैं और वह तैयार हैं । मैं पढूँ या दूसरा कोई पढ़े , इसकी चिन्ता नहीं हैं । मि. चेम्बरलेन हमसे कोई चर्चा थोड़े ही करने वाले हैं । मेरा जो अपमान हुआ हैं , उसे हमे पी जाना पड़ेगा ।'

मैं यों कह ही रहा था कि इतने में तैयब सेठ बोल उठे, 'पर आपका अपमान सारे भारतीय समाज का अपमान हैं । आप हमारे प्रतिनिधि हैं, इसे कैसे भुलाया जा सकता हैं ?'

मैने कहा, 'यह सच हैं, पर समाज को भी ऐसे अपमान पी जाने पड़ेगे । हमारे पास दूसरा इलाज ही क्या हैं ?'

तैयब सेठ ने जवाब दिया, 'भले जो होना हो सो हो, पर जानबूझकर दूसरा अपमान क्यों सहा जाय ? बिगाड़ तो यों भी हो ही रहा हैं । हमे हक ही कौन से मिल रहे हैं ? '

मुझे यह जोश अच्छा लगता था । पर मैं जानता था कि इसका उपयोग नहीं किया जा सकता । मुझे अपने समाज की मर्यादा का अनुभव था । अतएव मैने साथियों को शान्त किया और मेरे बदले स्व. जॉर्ज गॉडफ्रे को , जो हिन्दुस्तानी बारिस्टर थे, ले जाने की सलाह दी ।

अतः मि. गॉर्डफ्रे डेप्युटेशन के नेता बने । मेरे बारे में मि. चेम्बरलेन ने थोड़ी चर्चा भी की, 'एक ही क्यक्ति को दूसरी बार सुनने की अपेक्षा नये क सुनना अधिक उचित हैं ' - आदि बाते कहकर उन्होने किये हुए घाव को भरने का प्रयत्न किया ।

पर इससे समाज का और मेरा काम बढ़ गया , पूरा न हुआ । पुनः 'ककहरे' से आरम्भ करना आवश्यक हो गया । 'आपके कहने से समाज ने लड़ाई मे हिस्सा लिया , पर परिणाम तो यही निकला न ?' -- इस तरह ताना मारने वाले भी समाज मे निकल आये । पर मुझ पर इन तानो को कोई असर नहीं हुआ । मैने कहा, 'मुझे इस सलाह का पछतावा नहीं हैं । मैं अब भी मानता हूँ कि हमने लड़ाई मे भाग लेकर ठीक ही किया हैं । वैसा करके हमने अपने कर्तव्य का पालन किया है । हमें उसका फल चाहे देखने को न मिले, पर मेरा यह ढृढ विश्वास हैं कि शुभ कार्य का फल शुभ होता है । बीती बातो का विचार करने की अपेक्षा अब हमारे लिए अपने वर्तमान कर्तव्य का विचार करना अधिक अच्छा होगा । अतएव हम उसके बारे मे सोचें ।'

दूसरों ने भी इस बात का समर्थन किया ।

मैने कहा, 'सच तो यह हैं कि जिस काम के लिए मुझे बुलाया गया था, वह अब पूरा हुआ माना जायगा । पर मै मानता हूँ कि आपके छुट्टी दे देने पर भी अपने बसभर मुझे ट्रान्सवाल से हटना नहीं चाहियें । मेरा काम अब नेटाल से नहीं , बल्कि यहाँ से चलना चाहिये । एक साल के अन्दर वापस जाने का विचार मुझे छोड देना चाहिये और यहाँ की वकालत की सनद हासिल करनी चाहिये । इस नये विभाग से निबट लेने की हिम्मत मुझे मे है । यदि हमने मुकाबला न किया तो समाज लुट जायगा और शायद यहाँ से उसके पैर भी उखड़ जायेंगे । समाज का अपमान और तिरस्कार रोज-रोज बढता ही जाएगा । मि. चेम्बरलेन मुझ से नहीं मिले , उक्त अधिकारी ने मेरे साथ तिरस्कारपूर्ण व्यवहार किया, यह तो सारे समाज के अपमान की तुलना मे कुछ भी नहीं हैं । यहाँ हमारा कुत्तो की तरह रहना बरदाश्त किया ही नही जा सकता ।'

इस प्रकार मैने चर्चा चलायी । प्रिटोरिया और जोहानिस्बर्ग मे रहने वाले भारतीय नेताओ से विचार-विमर्श करके अन्त में जोहानिस्बर्ग में दफ्तर रखने का निश्चय किया । ट्रान्सवाल में मुझे वकालत की सनद मिलने के बारे मे भी शंका तो थी ही । पर वकील-मंडल की ओर से मेरे प्रार्थना-पत्र का विरोध नही हुआ औऱ बड़ी अदालत ने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली ।

हिन्दुस्तानि को अच्छे स्थान में आफिस के लिए घर मिलना भी कठिन काम था । मि. रीच के साथ मेरा अच्छा परिचय हो गया था । उस समय वे व्यापापी-वर्ग में थे । उनकी जान-पहचान के हाउस-एजेंट के द्वारा मुझे आफिस के लिए अच्छी बस्ती मे घर मिल गया और मैंने वकालत शुरू कर दी ।

 

 

 

 

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